मन की युद्धभूमिSample

अपने इच्छानुसार पाना
प्राय मैं जानती हूँ कि मुझे क्या चाहिये और मैं उसे प्राप्त करना चाहती हूँ। मैं भी अन्य लोगों की तरह ही हूँ। जब हमें वह नहीं मिलता जो हमें चाहिये, तब हमारे नकारात्मक विचार भड़क उठते हैं। (स्मरण रखें कि वे भावनाएँ विचारों के साथ ही शुरू होते हैं।)
‘‘मैंने कपड़ा खरीदने के लिये पूरे शहर का चक्कर लगाया और तुम मेरे साईज के बाहर हो?''
‘‘क्या आप यह कहना चाहते हैं, कि एच.डि. दृटी.वी स्टॉक में नहीं है? फिर आप अखबार में विज्ञापन क्यों दिये?''
हम में से अधिकतर लोग भी ऐसे ही हैं— जब हमें वह नहीं मिलता जो हमें चाहिये, तब हम अपने चारों ओर के लोगों का जीना मुश्किल कर देते हैं। यह हम स्कूल में नहीं सीखते हैं, यह जन्मजात है।
जैसे मैंने ऊपरोक्त प्रश्नों को लिखा, मेरे विचार में किराना दुकान का एक दृश्य आया। एक माँ अपने ट्रोली को धकेलती हुई आगे ले चली और बच्चों के समान की पंक्ती में जा खड़ी हुई। उनका दो साल का बच्चा एक बॉक्स को छूकर उसका माँग करने लगा, ‘‘मुझे चाहिये—मुझे चाहिये।''
‘‘नहीं'', माँ ने कहा। ‘‘हमारे पास घर में बहुत हैं'', उसने एक दूसरा डिब्बा उठाकर ट्रोली में डाल दिया।
‘‘मुझे चाहिये—मुझे चाहिये'', बच्चे ने फिर से कहा। कोई उत्तर न पाकर वह हाथ पैर पटकने और चिल्लाने लगी। लेकिन माँ की तारीफ देखिये कि उसने बच्चे पर ध्यान नहीं दिया और अपने ट्रोली को लेकर किसी दूसरी पंक्ती में जा पहुँची।
जब मैंने इस व्यवहार को देखा तो तब मैंने सोचा कि हम भी अक्सर ऐसा ही करते हैं। हम निर्णय लेते हैं कि हमे क्या चाहिये, और जब हमें नहीं मिलता तो हम क्रोधित हो जाते हैं।
‘‘समीर और मैं एक साथ पदोन्नति चाह रहे थे। मैं समीर से भी अधिक समय से कम्पनी को अपनी सेवा दे रही थी, और मेरा रिपोर्ट भी अच्छा था।'' सुरूचि ने कहा। ‘‘मैं इसकी हकदार थी, परन्तु पदोन्नति उसे मिली।
‘‘मेरा ग्रेड़ 98 था, मेरे अंतिम निबंध में जाने से पहले'' ऐन्जी ने कहा। अगर मुझे सौ प्रतिशत नंबर मिलते, तो मेरा ऐवरिज् 4.0 होता, और मैं कक्षा में टॉपर होती। परन्तु मैंने केवल 83 बनाया और मै कक्षा में पाँचवे स्थान पर आ गयी। मुझे 100 प्रतिशत मिलना था, लेकिन मेरे शिक्षक मुझे पसन्द नहीं करता है।''
आईये इस समस्या को और निकट से देखें। जिन व्यक्तियों का वर्णन ऊपर किया गया है, जिन्होंने अपनी इच्छा अनुसार प्राप्त नहीं किया, उन्होंने एक ही बात कही ''मैं इसका हकदार था परन्तु मुझे नहीं मिला''।
बहुधा हम मसीही भी जीवन को सिद्ध और सरल देखना चाहते हैं। हम सफलता, खुशी, आनन्द, शान्ति और अन्य सब बातों की अपेक्षा करते हैं, और जब ऐसा नहीं हो पाता है तो हम शिकायत करते हैं।
यद्यपि परमेश्वर हमको एक अच्छा जीवन जीने देता है, परन्तु ऐसे समय भी आते हैं जब हमको धीरज रखना होता है और अपने मार्ग को नहीं चुनना होता है। ये निराशाएँ हमारे चरित्र की परीक्षा लेती है और हमारे आत्मिक परिपक्वता को भी जांचती है। वे ये दिखाते हैं कि हम क्या वास्तव में पदोन्नति के लिये तैयार हैं।
हम क्यों यह चाहते हैं कि हम हमेशा आगे रहें और लोग हमसे पीछे रहें? हम क्यों सोचते हैं कि हम सिद्ध जीवन के लिये बनाए गए हैं? शायद इसलिये कि कभी—कभी हम अपने बारे में बहुत अधिक सोचते हैं, जितना हम नहीं हैं। एक दीन मन हमें चुप बैठने के लिये प्रेरित करता है, और परमेश्वर का इन्तजार करता है, कि वे हमें आगे ले जाए। परमेश्वर का वचन कहता है, कि हम विश्वास और धीरज के साथ परमेश्वर के प्रतिज्ञाओं को प्राप्त करते हैं। परमेश्वर पर विश्वास करना भला है, परन्तु क्या हम लगातार परमेश्वर पर विश्वास करते और भरोसा रख सकते हैं। जब हमे ये महसूस न हों कि जीवन अच्छा है?
शैतान हमारे मनों के साथ खेलता है। अधिकतर समय वह दुष्ट हमसे नकारात्मक बातें करता है, ”तुम इसके हकदार नहीं हो, तुम मुर्ख हो''। कभी—कभी वह एक अलग चाल चलता है। वह कहता है कि काम कठिन या कितना काम हमें दिया गया है। यदि हम उस पर ध्यान देना और विश्वास करना शुरू करेंगे तो हम शायद धोखे का अनुभव करेंगे कि किसी ने हमारा फायदा उठा लिया है।
हमें जब चाहिये तब यह नहीं मिलता है, तब हम गिर जाते हैं और कहते हैं, मैं इसका हकदार हूँ। हम न केवल अधिकारी, शिक्षक या किसी भी व्यक्ति के साथ गुस्सा होते हैं, किन्तु हम परमेश्वर से भी कभी—कभी क्राधित हो जाते हैं कि उसने हमें वह नहीं दिया जिसके हकदार हम है।
बड़ी गलती तो यह कहना है कि हम उसके हकदार है, क्योंकि तब स्वयं पर तरस खाने की भावना उत्पन्न होती है, जब हमें वह नहीं मिलता जो हम चाहते थे। हम इस स्वभाव को ले सकते हैं या फिर इस बात को समझ सकते हैं कि हमारे पास एक चुनाव है। मैं जीवन को स्वीकार करने को चुन सकती हूँ, जिस प्रकार वह है और मैं उसका सदुपयोग कर सकती हूँ या मैं शिकायत कर सकती हूँ कि यह सिद्ध नहीं है।
मैं योना की कहानी के बारे में सोचती हूँ मगरमछ की कहानी नहीं लेकिन उसके बाद क्या हुआ? उसने इस बात की घोषणा की थी कि चालीस साल में परमेश्वर नीनवें को नाश कर देगा, लेकिन लोगों ने पश्चाताप किया। क्योंकि परमेश्वर ने उनके चिल्लाने पर ध्यान दिया था, इसलिये योना क्रोधित हो गया। ''इसलिये अब हे यहोवा, मेरा प्राण ले ले, क्योंकि मेरे लिये जीवित रहने से मरना ही भला है''। योना 4ः3।
बहुत दुरूख की बात है ना ? क्या योना का विचार सही था या फिर एक लाख बीस हजार लोगों का बचाया जाना? हमारी परिस्थितियाँ इस प्रकार से नाटकीय नहीं होती है, परन्तु हजारों लोग बैठते हैं, और अपने प्रति खेदित होते हैं, और शैतान की फुसफुसाहट को सुनते हैं और परमेश्वर पर सामान्य भरोसा रखने से भी चुक जाते हैं, हर परिस्थिति में। मसीही जीवन का रहस्य है, कि हम स्वयं को परमेश्वर के हाथ में सौंप देते हैं। यदि हम परमेश्वर के इच्छा में अपने आपको सौंप देंगे, तो जो कुछ होगा उससे हम क्रोधित नहीं होंगे। यदि परमेश्वर हमारी चाहत को पूरा नहीं करता है, तब भी हमारा विश्वास इतना मजबूत है कि हम कह उठते हैं, ''मेरी इच्छा नहीं परन्तु तेरी इच्छा हो''।
"परमेश्वर मेरी सहायता कर, मेरे मन में बहुत इच्छाएँ फलवन्त होती है और जब मुझे वह नहीं मिलता जो मैं चाहता हूँ तो मैं उदास हो जाता हूँ। मुझे क्षमा कर। मुझे स्मरण दिला, कि यीशु मसीह क्रूस पर मरना नहीं चाहता था, लेकिन वह आपके इच्छा के अधिन था। मैं यीशु मसीह के द्वारा माँगती हूँ, कि आप मुझे पूर्ण अधिनत्व में जीने में सहायता करें। जो कुछ मैं हूँ उससे सन्तुष्ट रहूँ। आमीन।।''
Scripture
About this Plan

जीवन कभी-कभी हम में किसी को भी ध्यान ना देते समय पकड़ सकता है। जब आप के मन में युद्ध चलना आरम्भ होता है, दुश्मन परमेश्वर के साथ आपके संबंध को कमजोर करने के लिए उसके शस्त्रगार से प्रत्येक शस्त्र को इस्तेमाल करेगा। यह भक्तिमय संदेश आपको क्रोध, उलझन, दोष भावना, भय, शंका. .
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