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यशायाह 57

57
इस्राएल की मूर्तिपूजा की भर्त्सना
1धर्मी जन नष्‍ट होता है, और कोई इस बात की चिन्ता नहीं करता; भक्‍त मनुष्य उठा लिए जाते हैं, परन्तु कोई नहीं सोचता। धर्मी जन इसलिये उठा लिया गया कि आनेवाली आपत्ति से बच जाए, 2वह शान्ति को पहुँचता है; जो सीधी चाल चलता है वह अपनी खाट पर विश्राम करता है।
3परन्तु तुम, हे जादूगरनी के पुत्रो, हे व्यभिचारी और व्यभिचारिणी की सन्तान, यहाँ निकट आओ। 4तुम किस की हँसी उड़ाते हो? तुम किस पर मुँह खोलकर जीभ निकालते हो#57:4 मूल में, मुँह खोलकर जीभ बढ़ाते हो ? क्या तुम पाखण्डी और झूठे#57:4 मूल में, तुम अपराध की सन्तान, झूठ का वंश के वंश नहीं हो, 5तुम, जो सब हरे वृक्षों के तले देवताओं के कारण कामातुर होते और नालों में और चट्टानों की दरारों के बीच#57:5 मूल में, के नीचे बाल–बच्‍चों का वध करते हो? 6नालों के चिकने पत्थर ही तेरा भाग और अंश ठहरे#57:6 मूल में, वे ही तेरी चिट्ठी ; तू ने उनके लिये तपावन दिया और अन्नबलि चढ़ाया है। क्या मैं इन बातों से शान्त हो जाऊँ? 7एक बड़े ऊँचे पहाड़ पर तू ने अपना बिछौना बिछाया है, वहीं तू बलि चढ़ाने को चढ़ गई। 8तू ने अपनी निशानी अपने द्वार के किवाड़ और चौखट की आड़ ही में रखी; मुझे छोड़कर तू औरों को अपने आप को दिखाने के लिये चढ़ी, तू ने अपनी खाट चौड़ी की और उन से वाचा बाँध ली, तू ने उनकी खाट को जहाँ देखा, पसन्द किया। 9तू तेल लिये हुए राजा के पास गई और बहुत सुगन्धित तेल अपने काम में लाई; अपने दूत तू ने दूर तक भेजे और अधोलोक तक अपने को नीचा किया। 10तू अपनी यात्रा की लम्बाई के कारण थक गई, तौभी तू ने न कहा कि यह व्यर्थ है; तेरा बल कुछ अधिक हो गया#57:10 मूल में, तू ने अपने हाथ का जीवन पाया , इसी कारण तू नहीं थकी।
11तू ने किसके डर से झूठ कहा, और किसका भय मानकर ऐसा किया कि मुझ को स्मरण नहीं रखा न मुझ पर ध्यान दिया? क्या मैं बहुत काल से चुप नहीं रहा? इस कारण तू मेरा भय नहीं मानती। 12मैं आप तेरे धर्म और कर्मों का वर्णन करूँगा, परन्तु, उन से तुझे कुछ लाभ न होगा। 13जब तू दोहाई दे, तब जिन मूर्तियों को तू ने जमा किया है वे ही तुझे छुड़ाएँ! वे तो सब की सब वायु से वरन् एक ही फूँक से उड़ जाएँगी। परन्तु जो मेरी शरण लेगा वह देश का अधिकारी होगा, और मेरे पवित्र पर्वत का भी अधिकारी होगा।
सहायता और स्वस्थ करने की प्रतिज्ञा
14यह कहा जाएगा, “पाँति बाँध बाँधकर राजमार्ग बनाओ, मेरी प्रजा के मार्ग में से हर एक ठोकर दूर करो।” 15क्योंकि जो महान् और उत्तम और सदैव स्थिर रहता, और जिसका नाम पवित्र है, वह यों कहता है, “मैं ऊँचे पर और पवित्रस्थान में निवास करता हूँ, और उसके संग भी रहता हूँ, जो खेदित और नम्र है, कि नम्र लोगों के हृदय और खेदित लोगों के मन को हर्षित करूँ#57:15 मूल में, नम्रों की आत्मा और चूर मन जिलाने को 16मैं सदा मुक़द्दमा न लड़ता रहूँगा, न सर्वदा क्रोधित रहूँगा, क्योंकि आत्मा मेरे बनाए हुए हैं और जीव मेरे सामने मूर्च्छित हो जाते हैं। 17उसके लोभ के पाप के कारण मैं ने क्रोधित होकर उसको दु:ख दिया था, और क्रोध के मारे उससे मुँह छिपाया था; परन्तु वह अपने मनमाने मार्ग में दूर भटकता चला गया था। 18मैं उसकी चाल देखता आया हूँ, तौभी अब उसको चंगा करूँगा; मैं उसे ले चलूँगा और विशेष करके उसके शोक करनेवालों को शान्ति दूँगा। 19मैं मुँह के फल का सृजनहार हूँ; यहोवा ने कहा है, जो दूर और जो निकट हैं, दोनों को पूरी शान्ति मिले; और मैं उसको चंगा करूँगा।#इफि 2:13,17 20परन्तु दुष्‍ट तो लहराते हुए समुद्र के समान है जो स्थिर नहीं रह सकता; और उसका जल मैल और कीच उछालता है। 21दुष्‍टों के लिये शान्ति नहीं है, मेरे परमेश्‍वर का यही वचन है।#यशा 48:22

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