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रोमियों 1

1
अभिवादन
1यह पत्र येशु मसीह के सेवक पौलुस की ओर से है, जो परमेश्‍वर के द्वारा प्रेरित होने के लिए बुलाया गया है और उसके शुभ समाचार के प्रचार के लिए पृथक किया गया है।#प्रे 9:15; 13:2; गल 1:10,15 2परमेश्‍वर ने पहले से ही अपने नबियों के द्वारा पवित्र धर्मग्रन्‍थों में उस शुभ समाचार की प्रतिज्ञा की थी,#तीत 1:2; रोम 16:25-26 3-4जो उसके पुत्र हमारे प्रभु येशु मसीह के विषय में है।#रोम 9:5; 2 शम 7:12; मत 22:42; 2 तिम 2:8 वह शरीर की दृष्‍टि से दाऊद के वंश में उत्‍पन्न हुए, पर पवित्र आत्‍मा की दृष्‍टि से मृतकों में से जी उठने के कारण सामर्थ्य के साथ परमेश्‍वर के पुत्र प्रमाणित हुए।#प्रे 13:33 5उन्‍हीं येशु से हमें प्रेरित बनने का वरदान मिला है कि उनके नाम के निमित्त सब जातियों के लोग विश्‍वास की अधीनता स्‍वीकार करें।#प्रे 26:16-18; रोम 15:18; गल 2:7,9 6उनमें से आप भी हैं, जो येशु मसीह के ही लोग होने के लिए बुलाये गये हैं।#1:6 अथवा, “जो येशु मसीह के द्वारा बुलाये गये हैं”
7आप-सब के नाम, जो रोम नगर में परमेश्‍वर के प्रिय हैं और संत होने के लिए बुलाये गये हैं।#1 कुर 1:2; 2 कुर 1:1; इफ 1:1; गण 6:25-26
हमारा पिता परमेश्‍वर और प्रभु येशु मसीह आप को अपनी कृपा और शान्‍ति प्रदान करें।
धन्‍यवाद की प्रार्थना
8सर्वप्रथम मैं आप सब के लिए येशु मसीह द्वारा अपने परमेश्‍वर को धन्‍यवाद देता हूँ; क्‍योंकि संसार भर में आप लोगों के विश्‍वास की चर्चा फैल गयी है।#रोम 16:19; 1 थिस 1:8 9जिस परमेश्‍वर की उपासना मैं उसके पुत्र के शुभ समाचार द्वारा सारे हृदय से करता हूँ, वही मेरा साक्षी है कि मैं अपनी प्रार्थनाओं में आप लोगों को निरन्‍तर स्‍मरण करता हूँ#फिल 1:8; इफ 1:16 10और सदा यह निवेदन करता हूँ कि परमेश्‍वर की इच्‍छा से किसी-न-किसी तरह मुझे अन्‍त में आप लोगों के पास आने का सुअवसर मिले।#प्रे 19:21; रोम 15:23,32 11क्‍योंकि मुझे आप से मिलने की बड़ी इच्‍छा है; मैं आप को विश्‍वास में सुदृढ़ बनाने के लिए आपको भी एक आध्‍यात्‍मिक वरदान देना चाहता हूँ;#प्रे 28:31 12या यों कहें : मैं चाहता हूँ कि मैं आप लोगों के यहाँ रह कर आपके विश्‍वास से प्रोत्‍साहन प्राप्‍त करूँ और आप मेरे विश्‍वास से।#2 पत 1:1 13भाइयो और बहिनो! मैं नहीं चाहता कि आप लोग इस बात से अनजान रहें कि मैंने बार-बार आपके यहाँ आने की योजना बनाई ताकि जैसे अन्‍य जातियों में वैसे आपके बीच भी मैं कुछ “फल” प्राप्‍त करूँ; किन्‍तु अब तक इस योजना में कोई-न-कोई बाधा आती रही।#यो 15:16 14मैं अपने को यूनानियों और गैर-यूनानियों, ज्ञानियों और अज्ञानियों के प्रति उत्तरदायी समझता हूँ#1:14 शब्‍दश: “ऋणी हूँ” 15इसलिए मैं आप रोम निवासियों को भी शुभ समाचार सुनाने के लिए उत्‍सुक हूँ।
शुभ समाचार का सामर्थ्य
16शुभ समाचार से मैं लज्‍जित नहीं होता! यह परमेश्‍वर का सामर्थ्य है, जो प्रत्‍येक विश्‍वासी के लिए—पहले यहूदी और फिर यूनानी के लिए—मुक्‍ति का स्रोत है।#भज 119:46; 1 कुर 1:18,24; प्रे 13:46 17शुभ समाचार में परमेश्‍वर की धार्मिकता#1:17 मूल में “दिकयोसुने” धर्मवैज्ञानिकों ने इस शब्‍द के अनेक अर्थ किए हैं; जैसे मुक्‍ति, विधान, नीतिमत्ता, धर्म, पाप-मुक्‍ति की योजना, न्‍याय-प्रियता आदि। , जो आदि से अन्‍त तक विश्‍वास पर आधारित है, प्रकट हो रही है, जैसा कि धर्मग्रन्‍थ में लिखा है : “धार्मिक मनुष्‍य विश्‍वास के द्वारा जीवन प्राप्‍त करेगा#रोम 3:21-22; हब 2:4; भज 143:1,2,11 #1:17 अथवा, “विश्‍वास के आधार पर धार्मिक ठहरा हुआ व्यक्‍ति जीवन प्राप्‍त करेगा।” अथवा, “जो मनुष्‍य विश्‍वास के द्वारा परमेश्‍वर की दृष्‍टि से धार्मिक ठहरा है, वह जिएगा।”
मनुष्‍य-जाति का दोष
18परमेश्‍वर का क्रोध स्‍वर्ग से उन लोगों के सब प्रकार के अधर्म और अन्‍याय पर प्रकट हो रहा है, जो अन्‍याय द्वारा सत्‍य को दबाये रखते हैं।#मी 7:9; सप 3:8-9; यो 16:9; 2 थिस 2:12 19कारण यह है कि परमेश्‍वर के विषय में जो कुछ जाना जा सकता है, वह उन पर प्रकट है; स्‍वयं परमेश्‍वर ने उसे उन पर प्रकट किया है।#प्रे 14:15-17; 17:24-28 20संसार की सृष्‍टि के समय से ही परमेश्‍वर के अदृश्‍य स्‍वरूप को, अर्थात् उसकी शाश्‍वत शक्‍तिमत्ता और उसके ईश्‍वरत्‍व को, बुद्धि की आँखों द्वारा उसके कार्यों में देखा जा सकता है। इसलिए वे अपने आचरण की सफाई देने में असमर्थ हैं;#भज 19:1; इब्र 11:3; अय्‍य 12:7-9; प्रज्ञ 13:1-9; प्रव 17:8 21क्‍योंकि उन्‍होंने परमेश्‍वर को जानते हुए भी उसे परमेश्‍वर के रूप में समुचित आदर और धन्‍यवाद नहीं दिया। उनका समस्‍त चिन्‍तन व्‍यर्थ चला गया और उनका विवेकहीन मन अन्‍धकारमय हो गया।#इफ 4:18 22वे अपने को बुद्धिमान समझते हैं, किन्‍तु वे मूर्ख बन गये हैं।#यिर 10:14; 1 कुर 1:20 23उन्‍होंने अनश्‍वर परमेश्‍वर की महिमा के बदले नश्‍वर मनुष्‍य, पक्षियों, पशुओं तथा सर्पों की अनुकृतियों की शरण ली।#भज 106:20; व्‍य 4:15-19; प्रज्ञ 11:15; 12:24; 13:10-19
24इसलिए परमेश्‍वर ने उन्‍हें उनके मन की दुर्वासनाओं के अनुसार दुराचरण का शिकार होने दिया और वे एक-दूसरे के शरीर को अपवित्र करते हैं।#प्रे 14:16 25उन्‍होंने परमेश्‍वर के सत्‍य के स्‍थान पर झूठ को अपनाया और सृष्‍ट वस्‍तुओं की उपासना और आराधना की, किन्‍तु उस सृष्‍टिकर्ता की नहीं, जो युगों-युगों तक धन्‍य है। आमेन!#रोम 9:5 26यही कारण है कि परमेश्‍वर ने उन्‍हें उनकी घृणित वासनाओं का शिकार होने दिया। उनकी स्‍त्रियाँ प्राकृतिक संसर्ग छोड़ कर अप्राकृतिक संसर्ग करने लगीं। 27इसी प्रकार उनके पुरुष भी स्‍त्रियों का प्राकृतिक संसर्ग छोड़ कर एक-दूसरे के लिए वासना से जलने लगे। पुरुष पुरुषों के साथ कुकर्म करते हैं और इस प्रकार वे अपने भ्रष्‍ट आचरण का उचित फल स्‍वयं भोग रहे हैं।#लेव 18:22; 20:13; 1 कुर 6:9
28उन्‍होंने परमेश्‍वर का सच्‍चा ज्ञान प्राप्‍त करना उचित नहीं समझा, इसलिए परमेश्‍वर ने उन्‍हें उनकी भ्रष्‍ट बुद्धि पर छोड़ दिया, जिससे वे अनुचित आचरण करने लगे। 29वे हर प्रकार के अन्‍याय, दुष्‍टता, लोभ और बुराई से भर गये। वे ईष्‍र्या, हत्‍या, बैर, छल-कपट और दुर्भाव से परिपूर्ण हैं। वे चुगलखोर, 30परनिन्‍दक, परमेश्‍वर के बैरी, धृष्‍ट, घमण्‍डी और डींग मारने वाले लोग हैं। वे बुराई करने में चतुर हैं, अपने माता-पिता की आज्ञा नहीं मानते 31और विवेकहीन तथा विश्‍वासघाती हैं। उन में प्रेम और दया का अभाव है। 32वे परमेश्‍वर का यह निर्णय जानते हैं कि ऐसे कुकर्म करने वालों का उचित दण्‍ड मृत्‍यु है। फिर भी वे न केवल स्‍वयं ये ही कार्य करते हैं, बल्‍कि ऐसे कुकर्म करने वालों की प्रशंसा भी करते हैं।

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