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नीतिवचन 1

1
नीतिवचन का महत्त्व
1दाऊद के पुत्र इस्राएल के राजा सुलैमान के नीतिवचन :#1 राजा 4:32
2इनके द्वारा पढ़नेवाला बुद्धि और शिक्षा
प्राप्‍त करे,
और समझ की बातें समझे,
3और काम करने में प्रवीणता,
और धर्म, न्याय और निष्पक्षता की
शिक्षा पाए;
4कि भोलों को चतुराई,
और जवान को ज्ञान और विवेक मिले;
5कि बुद्धिमान सुनकर अपनी विद्या बढ़ाए,
और समझदार बुद्धि का उपदेश पाए,
6जिस से वे नीतिवचन और दृष्‍टान्त को,
और बुद्धिमानों के वचन और
उनके रहस्यों को समझें।
युवकों को सलाह
7यहोवा का भय मानना बुद्धि का मूल है;
बुद्धि और शिक्षा को मूढ़ ही लोग
तुच्छ जानते हैं।#अय्यू 28:28; भजन 111:10; नीति 9:10
8हे मेरे पुत्र, अपने पिता की शिक्षा पर कान लगा,
और अपनी माता की शिक्षा को न तज;
9क्योंकि वे मानो तेरे सिर के लिये
शोभायमान मुकुट,
और तेरे गले के लिये कन्ठ माला होगी।
10हे मेरे पुत्र, यदि पापी लोग तुझे फुसलाएँ,
तो उनकी बात न मानना।
11यदि वे कहें, “हमारे संग चल कि
हम हत्या करने के लिये घात लगाएँ,
हम निर्दोषों की ताक#1:11 मूल में, अकारण ढूका लगाना में रहें;
12हम अधोलोक के समान उनको जीवता,
कबर में पड़े हुओं के समान
समूचा निगल जाएँ।
13हम को सब प्रकार के अनमोल पदार्थ मिलेंगे,
हम अपने घरों को लूट से भर लेंगे;
14तू हमारा साझी हो जा,
हम सभों का एक ही बटुआ हो,”
15तो हे मेरे पुत्र, तू उनके संग मार्ग में न चलना,
वरन् उनकी डगर में पाँव भी न रखना।
16क्योंकि वे बुराई ही करने को दौड़ते हैं,
और हत्या करने को फुर्ती करते हैं।
17क्योंकि पक्षी के देखते हुए
जाल फैलाना व्यर्थ होता है;
18और ये लोग तो अपनी ही हत्या करने के
लिये घात लगाते हैं,
और अपने ही प्राणों की घात में रहते हैं।
19सब लालचियों की चाल ऐसी ही होती है,
उनका प्राण लालच ही के कारण
नष्‍ट हो जाता है।
बुद्धि की पुकार
20बुद्धि#1:20 मूल में, बुद्धियाँ सड़क में ऊँचे स्वर से बोलती है,
और चौकों में प्रचार करती है;
21वह बाज़ारों की भीड़ में पुकारती है;
वह फाटकों के बीच में
और नगर के भीतर भी ये बातें
बोलती है :#नीति 8:1–3
22“हे भोले लोगो, तुम कब तक भोलेपन से
प्रीति रखोगे?
हे ठट्ठा करनेवालो, तुम कब तक
ठट्ठा करने से प्रसन्न रहोगे?
हे मूर्खो, तुम कब तक ज्ञान से बैर रखोगे?
23तुम मेरी डाँट सुनकर मन फिराओ;
सुनो, मैं अपनी आत्मा तुम्हारे लिये
उण्डेल दूँगी,
मैं तुम को अपने वचन बताऊँगी।
24मैं ने तो पुकारा परन्तु तुम ने इन्कार किया,
और मैं ने हाथ फैलाया, परन्तु किसी ने
ध्यान न दिया,
25वरन् तुम ने मेरी सारी सम्मति को
अनसुनी किया,
और मेरी ताड़ना का मूल्य न जाना;
26इसलिये मैं भी तुम्हारी विपत्ति के समय
हँसूँगी;
और जब तुम पर भय आ पड़ेगा,
27वरन् आँधी के समान तुम पर भय आ पड़ेगा,
और विपत्ति बवण्डर के समान आ पड़ेगी,
और तुम संकट और सकेती में फँसोगे,
तब मैं ठट्ठा करूँगी।
28उस समय वे मुझे पुकारेंगे, और मैं न सुनूँगी;
वे मुझे यत्न से तो ढूँढ़ेंगे, परन्तु न पाएँगे।
29क्योंकि उन्होंने ज्ञान से बैर किया,
और यहोवा का भय मानना उनको न भाया।
30उन्होंने मेरी सम्मति न चाही,
वरन् मेरी सब ताड़नाओं को तुच्छ जाना।
31इसलिये वे अपनी करनी का फल आप भोगेंगे,
और अपनी युक्‍तियों के फल से
अघा जाएँगे।
32क्योंकि भोले लोगों का भटक जाना,
उनके घात किए जाने का कारण होगा,
और निश्‍चिन्त रहने के कारण मूढ़ लोग
नष्‍ट होंगे,
33परन्तु जो मेरी सुनेगा, वह निडर बसा रहेगा,
और बेखटके सुख से रहेगा।”

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