दूसरे दिन जब वे बैतनिय्याह से निकले तो उसको भूख लगी। वह दूर से अंजीर का एक हरा पेड़ देखकर निकट गया कि क्या जाने उसमें कुछ पाए : पर पत्तों को छोड़ कुछ न पाया; क्योंकि फल का समय न था। इस पर उसने उससे कहा, “अब से कोई तेरा फल कभी न खाए!” और उसके चेले सुन रहे थे। फिर वे यरूशलेम में आए, और वह मन्दिर में गया; और वहाँ जो लेन–देन कर रहे थे उन्हें बाहर निकालने लगा, और सर्राफों के पीढ़े और कबूतर बेचनेवालों की चौकियाँ उलट दीं, और मन्दिर में से किसी को बरतन लेकर आने जाने न दिया। और उपदेश करके उनसे कहा, “क्या यह नहीं लिखा है कि मेरा घर सब जातियों के लिये प्रार्थना का घर कहलाएगा? पर तुम ने इसे डाकुओं की खोह बना दी है ।” यह सुनकर प्रधान याजक और शास्त्री उसके नाश करने का अवसर ढूँढ़ने लगे; क्योंकि वे उससे डरते थे, इसलिये कि सब लोग उसके उपदेश से चकित होते थे। साँझ होते ही वे नगर से बाहर चले गए। फिर भोर को जब वे उधर से जाते थे तो उन्होंने उस अंजीर के पेड़ को जड़ तक सूखा हुआ देखा।
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