फिर उसने चेलों से भी कहा, “किसी धनवान का एक भण्डारी था, और लोगों ने उसके सामने उस पर यह दोष लगाया कि वह तेरी सारी सम्पत्ति उड़ाए देता है। अत: उसने उसे बुलाकर कहा, ‘यह क्या है जो मैं तेरे विषय में सुन रहा हूँ? अपने भण्डारीपन का लेखा दे, क्योंकि तू आगे को भण्डारी नहीं रह सकता।’ तब भण्डारी सोचने लगा, ‘अब मैं क्या करूँ? क्योंकि मेरा स्वामी अब भण्डारी का काम मुझ से छीन रहा है। मिट्टी तो मुझ से खोदी नहीं जाती; और भीख माँगने में मुझे लज्जा आती है। मैं समझ गया कि क्या करूँगा, ताकि जब मैं भण्डारी के काम से छुड़ाया जाऊँ तो लोग मुझे अपने घरों में ले लें।’ तब उसने अपने स्वामी के देनदारों को एक–एक करके बुलाया और पहले से पूछा, ‘तुझ पर मेरे स्वामी का कितना कर्ज है?’ उसने कहा, ‘सौ मन तेल,’ तब उसने उससे कहा, ‘अपना खाता–बही ले और बैठकर तुरन्त पचास लिख दे।’ फिर उसने दूसरे से पूछा, ‘तुझ पर कितना कर्ज है?’ उसने कहा, ‘सौ मन गेहूँ,’ तब उसने उससे कहा, ‘अपना खाता–बही लेकर अस्सी लिख दे।’ “स्वामी ने उस अधर्मी भण्डारी को सराहा कि उसने चतुराई से काम किया है। क्योंकि इस संसार के लोग अपने समय के लोगों के साथ रीति–व्यवहारों में ज्योति के लोगों से अधिक चतुर हैं। और मैं तुम से कहता हूँ कि अधर्म के धन से अपने लिये मित्र बना लो, ताकि जब वह जाता रहे तो वे तुम्हें अनन्त निवासों में ले लें।
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