आप प्रेम की साधना करते रहें। आप आध्यात्मिक वरदानों की धुन में रहें; किन्तु विशेष रूप से नबूवत के वरदान की अभिलाषा किया करें। क्योंकि जो अध्यात्म भाषा में बोलता है, वह मनुष्यों से नहीं, बल्कि परमेश्वर से बोलता है। कोई भी उसे नहीं समझता : वह आत्मा से प्रेरित होकर रहस्यमय बातें करता है। किन्तु जो नबूवत करता है, वह मनुष्यों से आध्यात्मिक निर्माण, प्रोत्साहन और सान्त्वना की बातें करता है। जो अध्यात्म भाषा में बोलता है, वह अपना ही आध्यात्मिक निर्माण करता है; किन्तु जो नबूवत करता है, वह कलीसिया का आध्यात्मिक निर्माण करता है। मैं तो चाहता हूँ कि आप सब को अध्यात्म भाषाओं में बोलने का वरदान मिले, किन्तु इससे अधिक यह चाहता हूँ कि आप को नबूवत करने का वरदान मिले। यदि अध्यात्म भाषाओं में बोलने वाला व्यक्ति कलीसिया के आध्यात्मिक निर्माण के लिए उनकी व्याख्या नहीं करता, तो इसकी अपेक्षा नबूवत करने वाले का महत्व अधिक है। भाइयो और बहिनो! मान लीजिए कि मैं आप लोगों के यहाँ आकर अध्यात्म भाषाओं में बोलूँ और परमेश्वर द्वारा प्रकाशित सत्य, ज्ञान, नबूवत अथवा शिक्षा न प्रदान करूँ, तो मेरे बोलने से आप को क्या लाभ होगा? बाँसुरी या वीणा - जैसे निर्जीव वाद्यों के विषय में भी यही बात है। यदि उनसे उत्पन्न स्वरों में कोई भेद नहीं है, तो यह कैसे पता चलेगा कि बाँसुरी या वीणा पर क्या बजाया जा रहा है? यदि तुरही का स्वर अस्पष्ट है, तो कौन अपने को युद्ध के लिए तैयार करेगा? आपके विषय में भी यही बात है। यदि आप अध्यात्म भाषा में बोलते समय सुबोध शब्द नहीं बोलते, तो यह कैसे पता चलेगा कि आप क्या कह रहे हैं? आप केवल हवा से बातें करेंगे। संसार में न जाने कितने प्रकार के शब्द हैं और उन में एक भी निरर्थक नहीं है। यदि मैं किसी शब्द का अर्थ नहीं जानता, तो मैं बोलने वाले के लिए परदेशी हूँ और बोलनेवाला मेरे लिए परदेशी है। आप के विषय में भी यही बात है।आप लोग आध्यात्मिक वरदानों की धुन में रहते हैं; इसलिए ऐसे वरदानों से सम्पन्न होने का प्रयत्न करें, जो कलीसिया के आध्यात्मिक निर्माण में सहायक हों। अध्यात्म भाषा में बोलने वाला प्रार्थना करे, जिससे उसको व्याख्या करने का वरदान भी मिल जाये; क्योंकि यदि मैं अध्यात्म भाषा में प्रार्थना करता हूँ, तो मेरी आत्मा प्रार्थना करती हैं किन्तु मेरी बुद्धि निष्क्रिय है। तो क्या करना चाहिए? मैं अपनी आत्मा से प्रार्थना करूँगा और अपनी बुद्धि से भी। मैं अपनी आत्मा से गीत गाऊंगा और अपनी बुद्धि से भी। यदि आप आत्मा से आविष्ट होकर परमेश्वर की स्तुति करते हैं, तो वहाँ उपस्थित साधारण व्यक्ति आपका धन्यवाद सुनकर कैसे “आमेन” कह सकता है? वह यह भी नहीं जानता कि आप क्या कह रहे हैं। आपका धन्यवाद भले ही सुन्दर हो, किन्तु इससे दूसरे व्यक्ति का आध्यात्मिक निर्माण नहीं होता। परमेश्वर को धन्यवाद! मुझे आप सब से अधिक अध्यात्म भाषाओं में बोलने का वरदान मिला है, किन्तु अध्यात्म भाषा में दस हजार शब्द बोलने की अपेक्षा मैं दूसरों को शिक्षा देने के लिए धर्मसभा में अपनी बुद्धि से पाँच शब्द बोलना ज्यादा पसन्द करूँगा। भाइयो और बहिनो! सोच-विचार में बच्चे मत बनिए। हाँ, बुराई के संबंध में शिशु बने रहिए; किन्तु सोच-विचार में पूर्ण सयाने बनिए।
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