“ढोंगी शास्त्रियो और फरीसियो! धिक्कार है तुम्हें! तुम पुदीने, सौंफ और जीरे का दशमांश तो देते हो, किन्तु धर्म-व्यवस्था की मुख्य बातों − न्याय, करुणा और विश्वास की उपेक्षा करते हो। तुम्हारे लिए उचित तो यह था कि तुम इन्हें करते रहते और उन को भी नहीं छोड़ते! अन्धे पथ-प्रदर्शको! तुम मच्छर को तो छान देते हो, किन्तु ऊंट को निगल जाते हो। “ढोंगी शास्त्रियो और फरीसियो! धिक्कार है तुम्हें! तुम कटोरे और थाली को बाहर से तो माँजते हो, किन्तु भीतर वे लूट-खसौट और असंयम से भरे हुए हैं। अन्धे फरीसी! पहले भीतर से कटोरे को साफ कर, जिस से वह बाहर से भी साफ हो जाए। “ढोंगी शास्त्रियो और फरीसियो! धिक्कार है तुम्हें! तुम पुती हुई कबरों के सदृश हो, जो बाहर से तो सुन्दर दीख पड़ती हैं, किन्तु भीतर से मुरदों की हड्डियों और हर तरह की गन्दगी से भरी हुई हैं। इसी तरह तुम भी बाहर से लोगों को धार्मिक दीख पड़ते हो, किन्तु भीतर से तुम पाखण्ड और अधर्म से भरे हुए हो। “ढोंगी शास्त्रियो और फरीसियो! धिक्कार है तुम्हें! तुम नबियों के मकबरे बनाते और धर्मात्माओं के स्मारक सँवारते हो और यह कहते हो, ‘यदि हम अपने पूर्वजों के युग में होते, तो हम नबियों की हत्या करने में उनका साथ नहीं देते’। इस तरह तुम लोग अपने विरुद्ध यह गवाही देते हो कि तुम नबियों के हत्यारों की सन्तान हो। तो, अपने पूर्वजों की कसर पूरी कर लो। “अरे साँपो! करैतों की संतान! तुम नरक के दण्ड से कैसे बचोगे?
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